चारा फसलों में बरसीम के बाद जई का दूसरा स्थान है। जई को पशुओं के स्वास्थ्य के लिये अति लाभदायक चारा माना गया है, क्योंकि इसमें 8.0 प्रतिशत प्रोटीन पाया जाता है। इसे राज्य के प्रायः सभी जिलों में पशुपालकों द्वारा खेती की जा रही है।
जलवायु
यह शरद ऋतु की फसल है इसके लिये आर्द्र शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है।
भूमि
लगभग सभी प्रकार की मिट्टियों में जई की खेती की जा सकती है परन्तु दोमट से लेकर भारी दोमट मिट्टी में उत्पादन सबसे अच्छा पाया जाता है। खेत में जल निकास की उचित व्यवस्था के साथ ही जीवांश पदार्थ की प्रचुर मात्रा होने से जई की फसल की अच्छी वृद्धि होती है।
खेत की तैयारी
जई की खेती के लिये दो से तीन जुताई की आवश्यकता होती है। जहाँ तक संभव हो पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा शेष कल्टीवेटर या देशी हल से करें। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा लगाना चाहिए उससे मिट्टी भुरभुरी हो जाती है और खेत समतल बन जाता है।
बहु कटाई प्रभेद : यू.पी.ओ. 212, जे.एच.ओ. 851, बंदेल जई 851 प्रमुख हैं।
बीज दर
कूँड में अगात बुवाई करने की अवस्था में 75 से 80 किलोग्राम बीज और पिछात बुवाई की स्थिति में 100 से 110 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है। इसी तरह से छिटकवाँ विधि से अगात बुवाई की अवस्था में 110 से 115 किलोग्राम बीज एवं पिछात बुवाई की अवस्था में 120 से 125 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है।
बीज उपचार
रोग एवं कीटों के प्रकोप से बचाव हेतु बीज उपचार आवश्यक है। इसके लिये कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत 2 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज दर से बुवाई से पूर्व बीज को उपचारित करें।
जई की खेती
जई की खेती
जई की खेती
जई की खेती
बुवाई
जई की बुवाई अक्टूबर के प्रथम सप्ताह से लेकर नवम्बर के प्रथम सप्त के बीच में कर देनी चाहिये। अगर देर से बुवाई करनी पड़े तब नवम्बर ऑन सप्ताह तक बुवाई समाप्त कर लेनी चाहिये। जहाँ तक संभव हो बुवाई कँड करें और लाइन से लाइन की दूरी 20 सेमी. रखें।
पोषक तत्व प्रबंधन
लगभग 10 टन गोबर की सड़ी खाद अंतिम जुताई के समय खेत में समानरूप से बिखेर देनी चाहिए। इसके बाद 60 किलोग्राम नेत्रजन, 40 किलोग्राम स्फुर एवं 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के समय देना चाहिए। बुवाई के 20 से 25 दिनों पर 10 किलोग्राम नेत्रजन एवं पहली कटाई के बाद 10 किलोग्राम नेत्रजन का उपरिनिवेशन करें। पहली कटाई के बाद जिस समय नेत्रजन दिया जा रहा है उसी समय 20 किलोग्राम सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से देना काफी लाभदायक होता है।
सिंचाई प्रबंधन
जई की फसल में अधिक से अधिक 3-4 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। जई के खेत में नमी को बरकरार रखें और आवश्यकता पड़ने पर हल्की सिंचाई करें। एक सिंचाई फूल आने के समय अवश्य करनी चाहिये।
खरपतवार प्रबंधन
खेत में खरपतवारों के आक्रमण से उत्पादन प्रभावित होता है और पौधों का विकास अवरोधित होता है। खरपतवार नियंत्रण के लिये आवश्यकतानुसार पेंडीमेथलीन 30 ई.सी. दवा की 3.3 लीटर मात्रा 1000 लीटर मानी में घोल बनाकर बुवाई के तुरंत बाद एक हेक्टेयर में छिड़काव खेतों करना लाभदायक होता है।
पौधा संरक्षण प्रबंधन
जई फसल में बहुत की कम रोग एवं कीट का प्रकोप देखा गया है। कण्डवा एवं गेरूई जई के मुख्य रोग हैं। इसका नियंत्रण काफी हद तक बीज उपचार से हो जाता है। खड़ी फसल में इस रोग के प्रबंधन के लिये मैंकोजेब 2 किलोग्राम दवा 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर एक हेक्टेयर में छिड़काव करना चाहिए। कभी-कभी माहू एवं सैनिक कीट से फसल की वृद्धि प्रभावित होती है, इसके प्रभावी नियंत्रण हेतु क्यूनालफॉस 25 ई.सी. दवा की 1.5 लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
कटाई
एकल कटाई में 50 प्रतिशत फूल आने की अवस्था में फसल की कटाई करनी चाहिए। बहु कटाई की स्थिति में 40 से 50 दिनों के अंतराल पर कटाई करें तथा कटाई जमीन की सतह से 8 से 10 इंच की ऊँचाई पर करना लाभदायक होता है। बीज के लिये जई की खेती में एक ही कटाई करें अन्यथा जई का अच्छा बीज नहीं बन पायेगा।
उपज
एक कटाई में 500 से 550 क्विंटल हरा चारा प्राप्त होता है। बीज के लिये उत्पादित की गयी फसल से 250 क्विंटल हरा चारा एवं 20 से 25 क्विंटल बीज प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।
जई चारा एवं दाना उगाने में खर्च एवं आय का ब्योरा प्रति हेक्टर
बीज, बुआई एवं खेत तैयारी खर्च सिंचाई तीन खरपतवार नियंत्रण निकाई गुड़ाई पौधा संरक्षण हरा चारा कटाई उर्वरक प्रबन्धन दाना हेतु फसल कटाई एवं मढ़ाई कुलखर्च