लौकी की खेती
लौकी खरीफ एवं जायद में उगाई जाने वाली सब्जियों में काफी महत्व रखती है। लौकी में औषधीय गुण काफी अधिक पाया जाता है, इसके अधिक प्रचार-प्रसार से पिछले कुछ वर्षों में इसका रकबा काफी बढ़ा है।लौकी की खेती मैदानी एवं पहाड़ी दोनों क्षेत्रों में देश के सभी राज्यों में की जाती है। लौकी में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, खाद्य-रेशा, खनिज लवण एवं विटामिन काफी अधिक मात्रा में पाया जाता है। यह कब्ज को कम करने एवं खाँसी जैसी बीमारियों में लाभकारी पाया गया है।
जलवायु
लौकी की अच्छी पैदावार के लिए गर्म एवं आर्द्रता वाले भौगोलिक क्षेत्र सर्वोत्तम होते हैं। इसीलिए इसकी फसल जायद तथा खरीफ दोनों ऋतुओं में सफलतापूर्वक उगायी जाती है। अधिक वर्षा एवं बादल वाले मौसम में बीमारी एवं कीड़े का प्रकोप ज्यादा होता है। बीज उत्पादन हेतु बरसात का मौसम अधिक उपयुक्त रहता है क्योंकि गर्म एवं आर्द्र वातावरण के कारण फल अधिक संख्या में बनते हैं और फलो में बीज का विकास भी अच्छा होता है। बीज अंकुरण के लिए 30 से 35 डिग्री सेल्सियस और पौधों की बढ़वार के लिए 32 से 38 डिग्री सेल्सियस तापमान सर्वोत्तम रहता है।
भूमि
बलुई दोमट या जीवांश युक्त चिकनी मिट्टी जिसमें जल धारण क्षमता अधिक हो तथा पी०एच० मान 6.0 से 7.0 हो लौकी की खेती के लिए उपयुक्त होती है। कंकरीली तथा जल जमाव वाली भूमि इसकी खेती के लिए अच्छी नहीं होती है।
खेती की तैयारी
खेत की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल तथा बाद में 2 से3 जुताई देशी हल अथवा कल्टीवेटर से करें प्रत्येक जुताई के बाद पाटा लगाकर मिट्टी घुरगुरी बनाएं। खेत समतल होने पर सिंचाई करते समय पानी एक समान पूरे खेत में लगता है।
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Toggleउन्नत प्रभेद
- काशी गंगा :
इस किस्म के पौधे मध्यम बढ़वार वाले तथा तनों पर गाँठे कम दूरी पर विकसित होती हैं। फल मध्यम लम्बा होता है, गर्मी के मौसम में 50 दिनों बाद एवं बरसात में 55 दिनों बाद फलों की प्रथम तुड़ाई की जा सकती है इस प्रजाति की औसत उत्पादन क्षमता 435 कु. प्रति हेक्टेयर है। - नरेन्द्र रश्मि :
फल हल्के हरे एवं छोटे-छोटे होते हैं एवं फलों का औसत वजन । किलोग्राम होता है इस प्रजाति की औसत उपज 300 कु० प्रति हेक्टेयर है। पौधों पर कडू का लाल कीट, चूर्णिल व मृदरोमिल आसिता का प्रकोप कम होता है। - पूया सन्देश :
पौथे मध्यम लम्बाई के तथा गाँठों पर शाखाएँ कम दूरी पर विकसित होती है। फल गोलाकार, मध्यम आकार व लगभग 600 ग्राम वजन के होते हैं। बरसात वाली फसल 55 से 60 दिनों व गर्मी वाली फसल 60 से 65 दिनों बाद फल की प्रथम तुड़ाई की जा सकती है, औसत उपज 320 कु. प्रति हेक्टेयर होता है। - काशी बहार :
यह संकर प्रजाति है, इसके फसल पौधे के प्रारम्भिक गाँठों से बनने प्रारम्भ होते है। फल हल्के हरे, सीधे 30 से 32 सेंटीमीटर लम्बे 780 से 850 ग्राम वजन वाले तथा 7.89 सेंटीमीटर फल व्यास वाले होते हैं। इसकी औसत उपज 520 कु० प्रति हेक्टेयर है। गर्मी एवं बरसात दोनों ऋतुओं के लिए उपयुक्त किस्म है। यह प्रजाति नदियों के किनारे उगाने के लिए उपयुक्त है। अन्य उन्नत किस्में जैस7पूसा नवीन, पंजाब कोम, स्वर्ण स्नेहा, राजेन्द्र चमत्कार तथा संकर किस्में जैसे-नरेन्द्र संकर-4, नरेन्द्र मधुश्री, वरद आदि खूब अच्छी उपज देती है।
बीज की मात्रा
सीधे बीज बुआई के लिए 2.5 से 3.0 किलोग्राम बीज एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के लिए पर्याप्त होता है, परन्तु पॉलीथीन के थैलों या नियंत्रित वातावरण युक्त दे नर्सरी उत्पादन के लिए । किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है।
बुआई का समय
लौकी की बुआई जायद में 15 से 25 फरवरी तक खरीफ में 15 जून से 15 जुलाई तक करते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में बुआई मार्च-अप्रैल के महीने में की जाती है।
बुआई की विधि
लौकी की बुआई के लिए गर्मी के मौसम में 2.5 से 3.5 व वर्षा के मौसम में 4 से 4.5 मीटर की दूरी पर 50 सेमी चौड़ी व 3.0 से 3.5 सेमी गहरी नाली बना लेते हैं। इन नालियों के दोनों किनारे पर 60 से 75 सेंमी पर गर्मी वाली फसल व 80 से 85 सेमी वर्षा कालीन फसल की दूरी पर बीज की बुआई करते हैं। एक स्थान पर 2 से 3 बीज 4 सेमी की गहराई पर बोना चाहिए।
पोषक तत्व प्रबंधन
सामान्यतः 20 से 25 टन अच्छी प्रकार सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट को खेत तैयार करते समय मिट्टी में मिला देना चाहिए। इसके बाद 100 किलोग्राम नेत्रजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस एवं 60 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देनी चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा, फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय देना चाहिए। बची हुई नत्रजन की आधी मात्रा दो समान भागों में बाँटकर 4 से 5 पत्ती की अवस्था तथा शेष आधी मात्रा पौधों में फल बनने के पहले जड़ के पास में देनी चाहिए।
सिंचाई प्रबंधन
खरीफ ऋतु में खेत की सिंचाई करने की आवश्यकता नहीं होती परन्तु वर्षा न होने पर सिंचाई की आवश्यकता 10 से 15 दिनों के अन्तराल पर पड़ती है। अधिक वर्षा की स्थिति में पानी के निकास के लिए नालियों का गहरा व चौड़ा होनाआवश्यक है। गर्मियों में अधिक तापमान होने के कारण 4 से 5 दिनों के अन्तराल पर सिंचाई करना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण
वर्षा ऋतु में सिंचाई के बाद खेत में काफी खरपतवार उग आते हैं अतः उनको खूरपी के सहारे प्रथम 25 से 30 दिनों पर निकाई करके खरपतवार निकाल देना चाहिए। लौकी में पौधे की अच्छी वृद्धि एवं विकास के लिए 2 से 3 बार निकाई-गुड़ाई करके जड़ों के पास मिट्टी चढ़ा देना चाहिए। रासायनिक नियंत्रण के लिए खरपतवार नाशी के रूप में बूटाक्लोर रसायन की 2.0 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बीज बुआई के तुरन्त बाद छिड़काव करना चाहिए।
सहारा देना
वर्षा ऋतु में लौकी की गुणवत्ता युक्त अधिक उपज प्राप्त करने के लिए लकड़ी या लोहे के द्वारा निर्मित मचान पर चढ़ा कर खेती करना चाहिए। सहारा देकर पौधों को मचान पर चढ़ाने से फल जमीन के सम्पर्क से दूर रहने के कारण सड़ते नहीं है। इससे फलों का आकार सीधा एवं रंग अच्छा रहता है। मचान पर चढ़ाने के लिए जब पौधे 30 सेमी लम्बे हो जाये तो जूट या नायलॉन की रस्सी या वृक्षों की डालियों का सहारा लेना चाहिए। प्रारम्भिक अवस्था में निकालने वाली कुछ शाखाओं को काटकर निकाल देना चाहिए इसके उपर विकसित होने वाली शाखाओं में फल ज्यादा बनते हैं। सामान्यतः मचान की ऊँचाई 5.0 से 5.5 फीट तक रखते हैं। इस पद्धति के उपयोग से शस्य क्रिया सम्बन्धित लागत कम हो जाती है।


लौकी की खेती
लौकी की खेती
पौधा संरक्षण
- फल विगलन :
इस रोग से प्रभावित फलों पर कवक की अत्यधिक वृद्धि हो जाने से जमीन पर पड़े फल सड़ने लगते हैं। जमीन पर पड़े फलों का छिलका नरम एवं गहरे हरे रंग का हो जाता हैं आर्द्र वायुमण्डल में इस सड़े हुए भाग पर रूई के समान घने कवक जालविकसित हो जाते हैं। भण्डारण और परिवहन के समय भी फलों में यह रोग फैलता है।
नियंत्रण :
यदि जमीन पर फैलाकर खेती करना है तो खेत में उचित जल निकास की समुचित व्यवस्था करें। फलों को भूमि के स्पर्श से बचाने हेतु मचान बनाकर खेती करना चाहिए।
- मोजैक विषाणु :
यह रोग विशेषकर नई पत्तियों में चितकबरापन और सिकुड़न के रूप में प्रकट होता हैं पत्तियों छोटी एवं हरी पीली हो जाती है। संक्रमित पौ रूक जाती है। इसके आक्रमण से पत्ते छोटे ओर पुष्प छोटे-छोटे पत्तिय। जैसे बदले हुए दिखाई पड़ते हैं। ग्रसित पौधा बौना रह जाता है और उसमें फल बिल्कुल नहीं लगता।
नियंत्रण :
इस रोग की रोकथाम के लिए कोई प्रभावी उपाय नहीं हैं लेकिन प्रकोप कम करने के लिए रोग ग्रस्त पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए। रोग वाहक कीटों से बचाव के लिए मैलाथियान 0.1 प्रतिशत का घोल बनाकर दस दिनों के अन्तराल में 2-3 बार फसल पर छिड़काव करें।
- कडू का लाल कीट :
पौढ़ कीट विशेषकर मुलायम पत्तियों को प्रभावित करते हैं। अधिक आक्रमण होने से पौधे पत्ती रहित हो जाते हैं और मर जाते है। इल्ली पौधों की जड़ पर आक्रमण कर हानी पहुँचाती है और जमीन के सम्पर्क में आये फलों पर कभी-कभी आक्रमण कर उनमें छेद कर देती है।
नियंत्रण :
इस कीट के नियंत्रण करने के लिए मैलाथियान चूर्ण 5 प्रतिशत या केल्डान 5 प्रतिशत 25 किलोग्राम चूर्ण को राख में मिलाकर सुबह पौधों पर बुरकना चाहिए।
- फल मक्खी :
प्रौढ़ मादा छोटे, मुलायम फलों के छिलके के अन्दर अण्डा देना पसन्द करती हैं अण्डे से मैगट निकलती है जो फलों के गूद्दे को खाकर सड़ा देती है। ग्रसित फल सड़ जाता है और नीचे गिर जाता हैं।
नियंत्रण :
इस कीट के नियंत्रण करने के लिए एक एकड़ फसल के लिए 80 से 100 स्थानों पर प्रलोभक (1 किलोग्राम केला, 10 ग्राम फ्यूराडान व 5 मिली लीटर सिरका लकड़ी की सहायता से मिलाकर) किसी छिछले बर्तन में रखें अथवा 10 फेरोमोन ट्रैप प्रत हेक्टेयर प्रौढ़ आकर्षित होते हैं और प्रलोभक खाकर मर जाते हैं जिससे प्रौढ़ मादा मक्खी द्वारा फल पर अण्डा देना कम हो जाता है। मैलाथियान 50 ईन्सी का 2 मिली एवं 50 ग्राम गुड़ प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति 25-30 वर्ग मीटर क्षेत्र में पौधा पर प्रलोभक का छिड़काव करनी चाहिए।
फलों की तुड़ाई :
लौकी के फलों की तुड़ाई मुलायम व कम वजन 800 से 1000 ग्राम की अवस्था में करना चाहिए। बीज बोने के 55 से 60 दिनों बाद फल तुड़ाई योग्य हो जाते हैं। फल की तुड़ाई का कार्य हर तीन से पाँचवें दिन करना चाहिए ताकि पौधे पर ज्यादा फल लगे।
उपज
विभिन्न प्रभेदों से अलग-अलग क्षेत्रों में 350 से 500 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है।
लौकी की खेती का आर्थिक विश्लेषण (वर्ष 2020-21 के अनुसार)
क्र. स. | विवरण | मात्रा | दर | राशि (रु०) |
---|---|---|---|---|
1 | खेत की तैयारी एवं रेखांकनः | |||
(क) ट्रैक्टर द्वारा जुताई | 6 घंटा | 450/ घंटा | 2700.00 | |
(ख) रेखांकन हेतु कार्यबल | 20 कार्यबल | 275 कार्यबल | 5500.00 | |
2. | बीज एवं बुआई/रोपाई: | |||
(क) बीज | 3 किग्रा. | 1500 किग्रा. | 45000.00 | |
(ख) बीजोपचार (फफूंदनाशी/कीटनाशी रसायन) | 50 ग्रा. | 500 कि.ग्रा. | 25.00 | |
(ग) बुआई / रोपाई | 10 कार्यबल | 275/ कार्यबल | 2750.00 | |
3 | खाद एवं उर्वरकः | |||
(क) गोबर कि सड़ी खादः | 20 टन | 500/ टन | 10000.00 | |
(ख) नत्रजन | 100 किग्रा. | 13.80 किग्रा. | 1380.00 | |
(ग) स्फूर | 60 किग्रा. | 50 किग्रा. | 3000.00 | |
(घ) पोटाश | 60 किग्रा. | 24.50 किग्रा. | 1470.00 | |
(ङ) खाद एवं उर्वरक के व्यवहार | 8 कार्यबल | 275/ कार्यबल | 2220.00 | |
4 | सिंचाई | 6 सिंचाई | 1000/ कार्यबल | 6000.00 |
5 | निकाई-गुड़ाई | 30 कार्यबल | 275 कार्यबल | 8250.00 |
6 | खर-पतवार नियंत्रण (रसायन का व्यवहार) | 2 कार्यबल | 250/ कार्यबल | 500.00 |
7 | पौधा संरक्षण | 4000.00 | ||
8 | फसल की खुदाई, दुलाई एवं बाज़ार व्यवस्था | 40 कार्यबल | 275 कार्यबल | 11000.00 |
9 | भूमि का किराया | 4 माह | 10000/ वर्षा | 4000.00 |
10 | अन्य लागत | 3000.00 | ||
11 | कुल व्यय : 70295.00 रुपये | |||
कुल ऊपज (कुंटल): 400 (कुंटल) | ||||
कुल आय (रूपये): 160000.00 रुपये | ||||
शुद्ध आय (रूपये): 93770.00 रुपये | ||||
बिक्री दर @ 400/ रुपये प्रति कुंटल | ||||
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