देश के कुछ राज्यों विशेषकर बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान की बहुप्रचलित एवं लोकप्रिय दलहनी फसल है साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखने में यह सहायक होती है। असिंचित क्षेत्रों के लिए अन्य रबी दलहनी फसलों की उपेक्षा मसूर अधिक उपयुक्त है।
जलवायु
रबी मौसम की ठण्डी एवं शुष्क जलवायु मसूर की खेती के लिए सर्वोत्तम होती है। तापमान 20 से 25 डिग्री सें. पौध वृद्धि के लिए उपयुक्त होती है।
भूमि
दोमट-मटियार मिट्टी मसूर के लिए सर्वोत्तम पायी जाती है। जीवांश पदार्थ की प्रचुरता वाली सभी मिट्टियों में मसूर की खेती सम्भव है। जल निकास का उचित प्रबंध आवश्यक है।
खेत की तैयारी
खेत से पुरानी फसलों के अवशेष तथा खरपतवार को निकाल कर अलग कर दें, इसके बाद दो-तीन जुताई कर पाटा लगाए। जिससे मिट्टी भुरभुरी एवं खेत समतल बन जाय। जहाँ तक सम्भव हो पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा शेष जुताई कल्टीवेटर से करनी चाहिए। इसी समय लगभग 10 टन गोबर की सड़ी खाद खेत में विखेर कर मिट्टी में मिला देनी चाहिए।
उन्नत प्रभेद
मसूर की उन्नत प्रभेदों में मल्लिका, बी.आर.-25, पी.एल. 406, नरेन्द्र मसूर-1, के.एल.एस. 218, एच.यू.एल.-57, पी.एल. 639 एवं अरूण मुख्य है, जिन्हें निम्न प्रकार देखा जा सकता है।
मल्लिका : इसका दाना बड़ा होता है जो सभी क्षेत्र के लिए अनुसंशित है। इसकी बुवाई 15 अक्टूबर से 15 नवंबर तक कर सकते हैं, फसल 130 से 135 दिनों में तैयार हो जाती है जिससे 20 से 22 विवंटल उपज प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है।
पी.एल.-406 : यह किस्म शुद्ध एवं पैरा फसल के लिए सभी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त पाई गई है। लगभग 25 अक्टूबर से 25 नवंबर तक इसकी बुवाई की जा सकती है, फसल 130 से 140 दिनों में तैयार हो जाती है और उपज 18 से 20 क्विंटल तक प्राप्त की जा सकती है।
नरेन्द्रमसूर-1 : हरदा एवं उकठा के प्रति प्रतिरोधी किस्म है, इसकी बुआई 25 अक्टूबर से 15 नवंबर तक की जा सकती है। फसल 120 से 125 दिनों में तैयार हो जाती है जिससे 20 से 25 कुण्टल उपज प्राप्त होती है।
के.एल.एस.218 : यह किस्म भी उकठा एवं हरदा के प्रति प्रतिरोधी है, बुआई 25 अक्टूबर से 15 नवंबर तक की जाती है। फसल 120 से 125 दिनों में तैयार हो जाती है और उपज 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पाई जाती है।
एच.यू.एल.-57 : यह उकठा के प्रति प्रतिरोधी किस्म है इसकी बुआई 25 अक्टूबर से 15 नवंबर तक की जाती है। फसल 120 से 125 दिनों में पूर्ण रूप से तैयार हो जाती है और उत्पादन 20 से 25 क्विंटल प्राप्त होता है।
पी.एल.-639 : यह किस्म सभी मैदानी क्षेत्रों के लिए उपर्युक्त पाई गई है बुआई 25 अक्टूबर से 15 नवंबर तक हो जानी चाहिए। फसल 120 से 125 दिनों में तैयार होती है जिससे 18 से 20 क्विंटल उत्पादन प्राप्त होता है।
अरूण : यह बड़े दाने की किस्म है, इसकी बुवाई 15 अक्टूबर से 15 नवंबर तक की जा सकती है। फसल 110 से 120 दिनों में तैयार होती है और उत्पादन 22 से 25 क्विंटल प्राप्त होता है।
बीजदर
बीज आकार पर बीज बीज दर निर्भर करती है, छोटे दाने की किस्म के लिए 30 से 35 किग्रा. बड़े दाने के लिए 40 से 50 किग्रा. एवं पैरा फसल के 50 से 60 किग्रा. बीज की आवश्यकता होती है। बीज सदैव विश्सनीय स्त्रोत से लें साथ ही शुद्धता की जांच परख कर लेनी चाहिए।
बीज शोधन
बीज बुवाई से पूर्व यह अत्यन्त आवश्यक प्रक्रिया है इससे फसल में लगने वाले रोग एवं कीटों के प्रभाव को कम किया जा सकता है। इसके लिए बीज चुवाई से 24 घंटे पूर्व 2.5 ग्राम कार्बेन्डाजिम दवा से प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करें इससे फफूँद जति रोगों से छुटकारा मिल जाता है। इसके बाद क्लोरोपाइरीफास 20 ई.सी. दवा की 8 मिली. मात्रा से प्रति किग्रा. बीज को उपचारित करें इससे कजरा पिल्लू और दीमक का नियंत्रण हो जाता है। कीटनाशी एवं फफूंदनाशी से उपचार के बाद राइजोबियम और पी.एस.बी. स उपचारित करें।
बीज की बुआई
मसूर की बुआई कुंड में करनी चाहिए, कतार से कतार 25 सेमी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी. रखने पर पौधों को विकास का अच्छा अवसर प्राप्त होता है।
पोषक तत्व प्रबंधन
सामान्य तौर पर 100 किग्रा. डी.ए.पी. अथवा 20 किग्रा. नत्रजन एवं 40-50 किग्रा. स्फुर प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। उर्वरक बीज बुवाई से पूर्व खेत में समान रूप से बिखेर मिट्टी में मिला देनी चाहिए।
सिंचाई प्रबंधन
मसूर में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती खेत में नमी कम होने की स्थिति में लगभग 50 दिनों की फसल अवस्था पर एक हल्की सिंचाई सूक्ष्म सिंचाई पद्धति से 2 सेमी. कर देनी चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण
खरपतवार नियंत्रण अत्यन्त आवश्यक होता है, इसके लिए 30 दिन एवं 50 दिन पर निराई-गुड़ाई करके खरपतवारों को खेत से बाहर करें। इससे पौधों का अच्छा विकास होता है और उत्पादन बढ़ जाता है।
पौधा संरक्षण : मसूर में कजरा कीट, थ्रीप्स, फली छेदक कीट (कैटरपीलर), लाही कीट, उकठा रोग, हरदा रोग एवं मृदरोमिल रोग का प्रकोप पाया जाता है जिसे निम्न प्रकार नियंत्रित कर सकते हैं।
कजरा कीट : इसके नियंत्रण के लिए क्लोरवाइरीफास 20 ई.सी. दवा से बीज उपचार के बाद ही बीज की बुवाई करें। फसल में प्रकोप की दशा में 2.5 मिली. क्लोरवाइरीफास दवा प्रति ली. पानी में घोल बना कर खड़ी फसल में छिड़काव करें।
थ्रिप्स : इसके नियंत्रण के लिए ऑक्सीडेमेटॉन मिथाइल 25 ई.सी.जी. दवा को । मिली. मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर खड़ी फसल पर छिड़काव करें।
फलीछेदक कीट : यह कीट फली बनने पर फली के अंदर घुसकर अंदर ही अंदर दानों को खा जाता है, जिससे फली खराब हो जाती है। इससे बचाव के लिए प्रोफेनोफॉस दवा की। मिली. मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करनी चाहिए।
उकठा रोग : इसके प्रकोप से बचने के लिए बीज उपचार के बाद ही बीज को बुवाई करें। फसल में प्रकोप की दशा में कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 50 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण का 3 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। मिट्टी उपचार ट्राईकोडरमा 5 कि.ग्रा +. पचास किलो कम्पोस्ट मिलाकर खेत तैयारी के समय डालें।
हरदा रोग : इसके प्रकोप से बचने के लिए कार्बेन्डाजिम एवं मैंकोजेब 1.5 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर खड़ी फसल में छिड़काव करें।
फसल कटाई
लगभग 110 से 140 दिन में फसल पक कर तैयार हो जाती है, तैयार फसल । भूमि की सतह से कटाई करके खलिहान में सूखने के लिए रख देते हैं। खने के बाद मड़ाई करके दानों को भूसे से अलग कर लिया जाता है।
उपज
विभिन्न प्रभेदों से 14 से 25 क्विंटल तक उपज प्राप्त होती है।
खेत की तैयारी, बीज एवं बुआई खर्च
पटवन सूक्ष्म सिंचाई से एक
उर्वरक, निराई गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण
पौधा संरक्षण
कटाई एवं मढ़ाई खर्च
कुल खर्च
7850.00 रुपये
1500.00 रुपये
5540.00 रुपये
3200.00 रुपये
5200.00 रुपये
23,590.00 रुपये
कुल उपज 18 क्विंटल दर 4250/क्वंटल = 76500.00
शुद्ध आय 76500 - 23590 = 53,000 रुपये
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